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अ॒ञ्जन्ति॒ यं प्र॒थय॑न्तो॒ न विप्रा॑ व॒पाव॑न्तं॒ नाग्निना॒ तप॑न्तः। पि॒तुर्न पु॒त्र उ॒पसि॒ प्रेष्ठ॒ आ घ॒र्मो अ॒ग्निमृ॒तय॑न्नसादि ॥७॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

añjanti yam prathayanto na viprā vapāvantaṁ nāgninā tapantaḥ | pitur na putra upasi preṣṭha ā gharmo agnim ṛtayann asādi ||

पद पाठ

अ॒ञ्जन्ति॑। यम्। प्र॒थय॑न्तः। न। विप्राः॑। व॒पाऽव॑न्तम्। न। अ॒ग्निना॑। तप॑न्तः। पि॒तुः। न। पु॒त्रः। उ॒पसि॑। प्रेष्ठः॑। आ। घ॒र्मः। अ॒ग्निम्। ऋ॒तय॑न्। अ॒सा॒दि॒ ॥७॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:43» मन्त्र:7 | अष्टक:4» अध्याय:2» वर्ग:21» मन्त्र:2 | मण्डल:5» अनुवाक:3» मन्त्र:7


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्यार्थिन् ! (यम्) जिस (वपावन्तम्) विद्या के बीज के विस्तार को करते हुए के (न) सदृश आप को (अग्निना) अग्नि के सदृश ब्रह्मचर्य्य से (तपन्तः) संताप दुःख को सहते और विद्या के बीज का विस्तार करते हुए के (न) सदृश (प्रथयन्तः) प्रसिद्ध करते हुए (विप्राः) बुद्धिमान जनों के (न) सदृश अग्नि के समान ब्रह्मचर्य्य से सन्ताप दुःख को सहते हुए (अञ्जन्ति) कामना करते वा प्रकट करते हैं और जो (पितुः) पिता के (पुत्रः) पुत्र के सदृश (उपसि) समीप में (प्रेष्ठः) अत्यन्त प्रिय (घर्मः) यज्ञ वा तप (अग्निम्) अग्नि को (ऋतयन्) सत्य के सदृश आचरण करते हुए (आ, असादि) उत्तम प्रकार स्थित होवे, उनको और उसको आप निरन्तर सेवन करके विद्या को ग्रहण करिये ॥७॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे अध्यापक विद्वानो ! तुम लोग जो जितेन्द्रिय उत्तम स्वभावयुक्त शीत-उष्ण, सुख-दुःख, आनन्द, शोक, निन्दा-स्तुति आदि द्वन्द्व को सहनेवाले अभिमान और मोह से रहित सत्य आचरणकर्त्ता और परोपकारप्रिय ब्रह्मचारी विद्यार्थी होवें, उनको पुरुषार्थ से विद्वान् करिये ॥७॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे विद्यार्थिन् ! यं वपावन्तं न त्वामग्निना तपन्तो वपावन्तं न प्रथयन्तो विप्रा नाऽग्निना तपन्तोऽञ्जन्ति यः पितुः पुत्रो नोपसि प्रेष्ठो घर्मोऽग्निमृतयन्नासादि ताँस्तञ्च त्वं सततं सेवित्वा विद्यामुपादत्स्व ॥७॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अञ्जन्ति) कामयन्ते प्रकटयन्ति वा (यम्) (प्रथयन्तः) प्रख्यापयन्तः (न) इव (विप्राः) मेधाविनः (वपावन्तम्) विद्याबीजं विस्तरन्तम् (न) इव (अग्निना) पावकेनेव ब्रह्मचर्य्येण (तपन्तः) सन्तापदुःखं सहमानाः (पितुः) जनकस्य (न) इव (पुत्रः) (उपसि) समीपे (प्रेष्ठः) अतिशयेन प्रियः (आ) समन्तात् (घर्मः) यज्ञस्तापो वा (अग्निम्) (ऋतयन्) सत्यमिवाचरन् (असादि) सीदेत् ॥७॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः । हे अध्यापकविद्वांसो यूयं ये जितेन्द्रिया आप्तस्वभावाः शीतोष्णसुख- दुःखहर्षशोकनिन्दास्तुत्यादिद्वन्द्वं सोढारो निरभिमानिनो निर्म्मोहाः सत्याचरणपरोपकारप्रिया ब्रह्मचारिणो विद्यार्थिनः स्युस्तान् पुरुषार्थेन विदुषः कुरुत ॥७॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे अध्यापक विद्वानांनो! जे जितेंद्रिय, उत्तम स्वभावाचे, शीत, उष्ण, सुख, दुःख, शोक, निंदा, स्तुती इत्यादी द्वंद्व सहन करणारे, अभिमान व मोहापासून अलिप्त, सत्याचरणी, परोपकारी, ब्रह्मचारी विद्यार्थी असतील तर त्यांना पुरुषार्थाने विद्वान करा. ॥ ७ ॥